आत्मा एवं ब्रह्मज्ञान के गूढ़ रहस्य | कठोपनिषद्

आत्मा एवं ब्रह्मज्ञान के गूढ़ रहस्य,

आत्मा एवं ब्रह्मज्ञान के गूढ़ रहस्य,

1. आत्मा का स्वरूप – नित्य, अजर, अमर

सूक्ति: “न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥”

(कठोपनिषद् 2.18)

व्याख्या:

आत्मा न कभी जन्म लेती है, न कभी मरती है। यह कभी उत्पन्न नहीं होती, नष्ट भी नहीं होती। यह अजन्मा है, नित्य है, सदा रहने वाली है। शरीर के मरने पर भी आत्मा का कुछ नहीं बिगड़ता। जैसे वायु, आकाश और प्रकाश को नहीं मारा जा सकता, वैसे ही आत्मा भी अविनाशी है।

2. आत्मा इन्द्रियों से परे है

सूक्ति:”न प्राणेन नापानेन मृतो जीवति कश्चन।

इतरेण तु जीवति येनैष प्राणि तिष्ठति॥”

(कठोपनिषद् 2.5)

भावार्थ:

मनुष्य न प्राण के कारण जीवित रहता है और न अपान के कारण। कोई और तत्व है जिससे वह जीवित रहता है — वह तत्व है आत्मा।

तात्पर्य:

इंद्रियाँ, मन, प्राण, अपान आदि शरीर के अवयव मात्र हैं। आत्मा ही वह चेतना है जिससे जीवन संभव है।

3. आत्मा को इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं

सूक्ति: “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥”

(गृह्य सूत्रों में भी, और यहां विचार साम्य)

व्याख्या:

कोई शस्त्र आत्मा को काट नहीं सकता, कोई अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे भिगो नहीं सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती। आत्मा संपूर्ण तत्वों से परे है।

4. आत्मा की प्राप्ति बुद्धि और ध्यान से होती है

सूक्ति:”नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥”

(कठोपनिषद् 2.23)

भावार्थ:

यह आत्मा न तो भाषण देने से, न बुद्धिमत्ता से, और न ही बहुत श्रवण (श्रुति) से प्राप्त होती है। वह आत्मा उसी को प्राप्त होती है जिसे यह आत्मा स्वयं चाहती है।

तात्पर्य:

आत्मा की प्राप्ति में अहंकार, पांडित्य या शास्त्र-ज्ञान काफी नहीं, बल्कि विनय, समर्पण और आत्मशुद्धि आवश्यक है।

5. आत्मा का स्थान और प्रतीक – पुरुष, हंस, अग्नि, वट वृक्ष आदि

सूक्ति: “अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।

तं स्वच्छरीरात् प्रवृहे ह्यधीराः काष्ठं यथा दारुचिर्काष्ठाद् विवृण्वन्॥”

(कठोपनिषद् 2.3.17)

भावार्थ:

अंगुष्ठ के आकार का वह पुरुषरूप आत्मा हृदय में स्थित है। ज्ञानी उसे अपने शरीर से उसी प्रकार पृथक् कर लेते हैं जैसे लकड़ी से अग्नि को।

तात्पर्य:

यहाँ आत्मा के सूक्ष्म स्वरूप को “अंगुष्ठमात्र” कहा गया है — यह मात्रा कोई भौतिक आकार नहीं, प्रतीक है सूक्ष्मता का। हृदय में स्थित यह आत्मा ही व्यक्ति की चेतना है।

6. आत्मा को समझने की पद्धति — विवेक और वैराग्य

सूक्ति: “श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ संपरीत्य विविनक्ति धीरः।

श्रेयः हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते॥”

(कठोपनिषद् 1.2.2)

भावार्थ:

मनुष्य के जीवन में दो मार्ग होते हैं — श्रेयस (श्रेष्ठ मार्ग) और प्रेयस (प्रिय, सुखदायक मार्ग)। बुद्धिमान व्यक्ति श्रेयस का चयन करता है, जबकि सामान्य लोग प्रेयस (भोग) की ओर आकर्षित होते हैं।

तात्पर्य:

आत्मज्ञान के मार्ग में वैराग्य और विवेक की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। नचिकेता ने श्रेयस मार्ग को चुना — न धन, न भोग, केवल आत्मा की खोज।

7. अंततः आत्मा का स्वरूप — ब्रह्म के समान

सूक्ति: “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया

दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥”

(कठोपनिषद् 1.3.14)

भावार्थ:

उठो! जागो! श्रेष्ठ गुरुजनों से ज्ञान प्राप्त करो। यह आत्मज्ञान का मार्ग तलवार की धार पर चलने के समान कठिन है। यह गहन और दुर्गम मार्ग है — मनीषियों ने इसे ऐसा ही बताया है।

तात्पर्य:

आत्मा को जानने का मार्ग सरल नहीं है, यह साहस, संयम, गुरु-ज्ञान और आत्म-विवेक का योग है। नचिकेता इस मार्ग पर अग्रसर होता है और अंततः ब्रह्म को जान लेता है।

निष्कर्ष:

कठोपनिषद में नचिकेता केवल एक पात्र नहीं, वह प्रत्येक जिज्ञासु आत्मा का प्रतीक है जो मृत्यु, जीवन, आत्मा और ब्रह्म के रहस्य को समझना चाहता है।

यमराज गुरु के रूप में आत्मा को समझाने की प्रक्रिया में जो मार्गदर्शन देते हैं, वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना सहस्त्रों वर्ष पूर्व था।

यह उपनिषद हमें सिखाता है:

आत्मा शरीर से अलग और अविनाशी है,

सुख-दुख, मृत्यु-जीवन केवल माया हैं,

और ब्रह्मज्ञान ही परम लक्ष्य है।

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